गेहूँ खेती (wheat )
भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा गेहूँ उत्पादक देश है। देश की जनसंख्या वृद्धि को ध्यान में रखते हुए उत्पादन स्तर को बढ़ाने के लिए हमें गेहूँ की उन्नत उत्पादन प्रौद्योगिकी अपनाने की आवश्यकता है। इससे हम उपज को बढ़ाकर देश के कुल उत्पादन में वृद्धि कर सकते हैं। इन प्रौद्योगिकियों में प्रजातियों का चुनाव, बोने की विधियां, बीज एवं बुआई, पोषक तत्व प्रबंधन, सिंचाई प्रबंधन, खरपतवार नियंत्रण तथा फसल संरक्षण आदि प्रमुख हैं।
- गेहूँ खेती (wheat )
- उन्न्त प्रजातियाँ (varieties) गेहूँ खेती
- उतर परवर्तीय क्षेत्र : जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र
- उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रः पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान (कोटा एवं उदयपुर मंडलों को छोडकर), उत्तराखण्ड का तराई क्षेत्र, जम्मू व कश्मीर के जम्मू व कटुआ जिले, हिमाचल प्रदेश की ऊना एवं पाऊँटा घाटी
- उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र: पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, असम व पश्चिम बंगाल
- मध्य क्षेत्र : मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ गुजरात, राजस्थान के कोटा व उदयपुर क्षेत्र एवं उत्तर प्रदेश का बुंदेलखण्ड क्षेत्र
- प्रायद्विपीय क्षेत्र: महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तामिलनाडु मैदानी क्षेत्र
- दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्र: नीलगिरि एवं पालनी पर्वतीय क्षेत्र
- बुआई का समय (sowing time of wheat )
- बीज एवं बुआई (seed treatment)
- बीज दर और बुआई की विधि ( seed rate and method of sowing)
- उर्वरकों की मात्रा एवं उनका प्रयोग (fertilizer application)
- सिंचाई (irrigation in wheat)
- खरपतवार नियंत्रण (weed control )

उन्न्त प्रजातियाँ (varieties) गेहूँ खेती
हमेशा उन्नत, नई तथा क्षेत्र विशेष के लिए संस्तुत प्रजातियों का चयन करना चाहिए। विभिन्न क्षेत्रों के लिए संस्तुत प्रजातियाँ निम्नानुसार हैं
उतर परवर्तीय क्षेत्र : जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश एवं उत्तराखण्ड के पर्वतीय क्षेत्र
अवस्था | प्रजातिया |
सिंचित-समय पर बुआई | वी.एल. 738, वी.एल. 804, एच.एस. 240 |
सिंचित-पछेती बुआई | एच.एस. 420, वी.एल. 892, एच.एस. 490 |
असिंचित-अगेती बुआई | वी.एल. 829, वी.एल. 616, एच.पी. डब्लू 251 |
असिंचित-समय पर बुआई | वी.एल. 907, वी.एल. 804, वी.एल. 738, एच.एस. 240 |
असिंचित-पछेती बुआई | एच.एस. 420 |
उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रः पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान (कोटा एवं उदयपुर मंडलों को छोडकर), उत्तराखण्ड का तराई क्षेत्र, जम्मू व कश्मीर के जम्मू व कटुआ जिले, हिमाचल प्रदेश की ऊना एवं पाऊँटा घाटी
सिंचित-समय पर बुआई | एच.डी. 2967, एच.डी. 2687, पी.बी. डब्लू 343, डी.बी. डब्लू 17, एच.डी. 2894*, पी.बी. डब्लू 550, डब्लू एच. 542, एच.डी. 2851* पी.बी. डब्लू 502 |
सिंचित-पछेती बुआई | पी.बी. डब्लू 590, डब्लू एच. 1021, डी.बी. डब्लू 16, पी.बी. डब्लू 373, राज 3765, यू.पी. 2425 |
सिंचित-बहुत देर से बुआई असिंचित-समय पर बुआई लवणीय एवं क्षारीय भूमि डयूरम गेहूँ-सिंचित-समय पर बुआई | प्रजातियाँ पूसा गोल्ड* पी.बी. डब्लू 396, कुन्दन, पी.बी. डब्लू 175, पी.बी. डब्लू 299 के.आर.एल. 1-4, के.आर.एल. 19, के.आर.एल. 210, के.आर.एल. 213 पी.बी. डब्लू 314, पी.डी. डब्लू 291, एच.डी. 4713 |
उत्तर-पूर्वी मैदानी क्षेत्र: पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, बिहार, उड़ीसा, असम व पश्चिम बंगाल
सिंचित-समय पर बुआई | एच.डी. 2967, एच.डी. 2733, एच.डी. 2824, डी.बी. डब्लू 39, राज 4120, सी.बी. डब्लू 38, के. 307, एच.यू. डब्लू 468, पी.बी. डब्लू 343, एच.पी. 1761, एच.पी. 1731 |
सिंचित-पछेती बुआई | एच.डी. 2985, एन.डब्लू 2036, एच.डब्लू 2045, एच.पी. 1744, एच.डी. 2643 |
असिंचित-समय पर बुआई | एच.डी. 2888, के. 8962, के. 9465, एम.ए.सी.एस. 6145 |
लवणीय एवं क्षारीय भूमि | के.आर.एल. 1-4, के.आर.एल. 19, के.आर.एल. 210, के.आर.एल. 213 |

मध्य क्षेत्र : मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ गुजरात, राजस्थान के कोटा व उदयपुर क्षेत्र एवं उत्तर प्रदेश का बुंदेलखण्ड क्षेत्र
सिंचित-समय पर बुआई | एच.आई. 1544, जी. डब्लू 366, जी. डब्लू 322, जी. डब्लू 273, कंचन |
सिंचित-पछेती बुआई | एच.डी. 2932, एच.डी. 2864, एम.पी. 4010, डी.एल. 788-2, एम.पी.ओ. 1203 |
असिंचित-समय पर बुआई | एच.आई. 1531, एच.आई. 1500, एच. डब्लू 2004 |
ड्युरम गेहूँ-सिंचित समय पर बुवाई | एच.आई. 8381, एच.आई. 8498, एम.पी.ओ. 1215 |
ड्युरम गेहूँ असिंचित समय पर बुवाई | एच.आई. 4672, एच.आई. 8627 |
प्रायद्विपीय क्षेत्र: महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, तामिलनाडु मैदानी क्षेत्र
सिंचित-समय पर बुआई | एम.ए.सी.एस. 6222, राज 4037, एन.आई.ए. डब्लू 917, जी. डब्लू 322 |
सिंचित-पछेती बुआई | ए.के.ए. डब्लू 4027, एच.डी. 2932, राज 4083, पी.बी. डब्लू 533, एच.डी. 2833 |
असिंचित व सिमित सिंचाई | एच.डी. 2987, एच.डी. 2781, के. 9644, पी.बी. डब्लू 596 |
समय पर बुवाई डयूरम गेहूँ-सिंचित समय पर बुवाई | यू.ए.एस. 415, एच.आई. 8663, एम.ए.सी.एस. 2846 |
डयूरम गेहूँ–असिंचित समय पर बुवाई | ए.के.डी. डब्लू 2997-16 |
डाइकोकम गेहूँ | एम.ए.सी.एस. 2971, डी.डी.के. 1029, डी.डी.के. 1009 |
दक्षिणी पर्वतीय क्षेत्र: नीलगिरि एवं पालनी पर्वतीय क्षेत्र
सिंचित समय पर बुआई | एच. डब्लू 1085, एच. डब्लू 5207 |
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उत्पादन तकनीक गेहूँ खेती (wheat farming technique)
बुआई का समय (sowing time of wheat )
उत्तरी-पश्चिमी मैदानी क्षेत्रों में सिंचित दशा में गेहूँ बोने का उपयुक्त समय नवम्बर का प्रथम पखवाड़ा है। लेकिन उत्तरी-पूर्वी भागों में मध्य नवम्बर तक गेहूँ बोया जा सकता है। देर से बोने पर उत्तरी-पूर्वी मैदानों में 15 दिसम्बर के बाद तथा उत्तरी-पश्चिमी मैदानों में 25 दिसम्बर के बाद गेहूँ की बुआई करने से उपज में भारी हानि होती है।
इसी प्रकार बारानी क्षेत्रों में अक्टूबर के अन्तिम सप्ताह से नवम्बर के प्रथम सप्ताह तक बुआई करना उत्तम रहता है। यदि भूमि की उपरी सतह में संरक्षित नमी प्रचुर मात्रा में हो तो गेहूँ की बुआई 15 नवम्बर तक कर सकते हैं।
बीज एवं बुआई (seed treatment)
बीज साफ, स्वस्थ एवं खरपतवारों के बीजों से रहित होना चाहिए। सिकुड़े हुए तथा छोटे एंव कटे-फटे बीजों को निकाल देना चाहिए। हमेशा प्रमाणित बीजों को ही बोना चाहिए। यदि अपने खेत का बीज प्रयोग करना हो तो 2.5 ग्रा. बाविस्टीन या थायरम में प्रति कि.ग्रा. बीज को शोधित करना चाहिए।

बीज दर और बुआई की विधि ( seed rate and method of sowing)
बीज दर दानों के आकार, जमाव प्रतिशत, बोने का समय, बोने की विधि एवं भूमि की दशा पर निर्भर करती है। सामान्यतः यदि 1000 बीजों का भार 38 ग्राम है तो एक हेक्टेयर के लिए लगभग 100 कि.ग्रा. बीज की आवश्यकता होती है। यदि दानों का आकार बड़ा या छोटा है तो उसी अनुपात में बीज दर घटाई या बढ़ाई जा सकती है। इसी प्रकार सिंचित क्षेत्रों में समय से बुआई के लिए 100 कि.ग्रा./है. बीज पर्याप्त होता है। सिंचित क्षेत्रों में देरी से बोने के लिए 125 कि.ग्रा./है. बीज की आवश्यकता होती है। बारानी क्षेत्रों में समय से बुआई के लिए 75 कि.ग्रा. /है. बीज की आवश्यकता होती है। लवणीय क्षारीय मृदाओं के लिए बीज दर 125 कि.ग्रा./है. रखनी चाहिए। इसी प्रकार उत्तरी पूर्वी मैदानी क्षेत्र, जहाँ धान के बाद गेहूँ बोया जाता है, के लिए 125 कि.ग्रा./है बीज की आवश्यकता होती है।

बुआई देशी हल (केरा या पोरा) अथवा सीड ड्रिल से ही करनी चाहिए। छिड़कवां विधि से बोने से बीज ज्यादा लगता है तथा जमाव कम, निराई-गुड़ाई में असुविधा तथा असमान पौध संख्या होने से उपज कम हो जाती है, अतः इस विधि को नहीं अपनाना चाहिए। आजकल सीडड्रिल से बुआई काफी लोकप्रिय हो रही है क्योंकि इससे बीज की गहराई तथा पंक्तियों की दूरी नियंत्रित रहती है तथा इससे जमाव अच्छा होता है। विभिन्न परिस्थितियों में बुआई हेतु फर्टी-सीड ड्रिल (बीज एवं उर्वरक एक साथ बोने हेतु), जीरो-टिल ड्रिल (जीरोटिलेज या शून्यकर्षण में बुआई हेतु), फर्ब ड्रिल (फर्ब बुआई हेतु) आदि मशीनों का प्रचलन बढ़ रहा है। इसी प्रकार फसल अवशेष को बिना साफ किए हुए अगली फसल के बीज बोने के लिए रोटरी-टिल ड्रिल भी उपयोग में लाई जा रही है।
सामान्यतः गेहूँ को 15-23 सें.मी. की दूरी पर पंक्तियों में बोया जाता है। पंक्तियों की दूरी मृदा की दशा, सिंचाइयों की उपलब्धता एवं बोने के समय पर निर्भर करती है। सिंचित तथा समय से बोने हेतु पंक्तियों की दूरी 23 सें.मी. रखनी चाहिए। देरी से बोने पर तथा ऊसर भूमि में पंक्तियों की दूरी 15-18 सें.मी. रखना चाहिए।
सामान्य दशाओं में बौनी प्रजाति के गेहूँ को लगभग 5 सें.मी. गहरा बोना चाहिए, ज्यादा गहराई में बोने से जमाव तथा उपज पर बुरा प्रभाव पड़ता है। बारानी क्षेत्रों में जहाँ बोने के समय भूमि में नमी कम हो, बीज को कूँड़ों में बोना अच्छा रहता है तथा बुआई के बाद पाटा नहीं लगाना चाहिए। इससे बीज ज्यादा गहराई में पहुँच जाते हैं तथा जमाव अच्छा नहीं होता
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उर्वरकों की मात्रा एवं उनका प्रयोग (fertilizer application)

गेहूँ उगाये जाने वाले ज्यादातर क्षेत्रों में नत्रजन की कमी पाई जाती है। फास्फोरस तथा पोटाश की कमी भी क्षेत्र विशेष में पाई जाती है। पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में गंधक की कमी भी पाई गई है। इसी प्रकार सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे जस्ता, मैंगनीज तथा बोरान की कमी गेहूँ उगाये जाने वाले क्षेत्रों में देखी गई है। इन सभी तत्वों को भूमि में मृदा-परीक्षण को आधार मानकर आवश्यकतानुसार प्रयोग करना चाहिए। लेकिन ज्यादातर किसान विभिन्न कारणों से मृदा परीक्षण नहीं करवा पाते हैं। ऐसी स्थिति में गेहूँ के लिए संस्तुत दर निम्न हैं
- समय से सिंचित दशा में 120 कि.ग्रा. नत्रजन, 60 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है।
- देर से बुआई तथा कम पानी की उपलब्धता वाले क्षेत्रों में समय से बुआई के लिए लगभग 80 कि.ग्रा. नत्रजन, 40 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 30-40 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है।
- असिंचित क्षेत्रों में समय से बुआई करने पर 40-50 कि.ग्रा. नत्रजन, 20-35 कि.ग्रा. फास्फोरस तथा 20 कि.ग्रा. पोटाश प्रति हेक्टेयर की दर से आवश्यकता होती है।
असिंचित दशा में उर्वरकों को कँड़ों में बीजों से 2-3 सें.मी. गहरा डालना चाहिए तथा बालियां आने से पहले यदि पानी बरस जाए तो 20 कि.ग्रा./है. नत्रजन को टॉप ड्रेसिंग के रूप में देना चाहिए।
सिंचित दशाओं में फास्फोरस एवं पोटाश की पूरी मात्रा तथा नत्रजन की 1/3 मात्रा बुआई से पहले भूमि में अच्छे से मिला देना चाहिए। नाइट्रोजन की शेष 2/3 मात्रा का आधा प्रथम सिंचाई के बाद तथा शेष आधा तृितीय सिंचाई के बाद टॉप ड्रेसिंग के रूप में देनी चाहिए।
उर्वरकों की ये मात्राएं भूमि की दशा तथा गेहूँ से पहले बोई गई फसल पर निर्भर करती हैं। हरी खाद अथवा दलहनी फसलों के बाद उर्वरकों की मात्रा घटाई जा सकती है। धान्य फसलों जैसे मक्का, धान, ज्वार एवं बाजरा के बाद इन उर्वरकों की संस्तुत मात्रा प्रयोग करनी चाहिए। यदि उपलब्ध हो तो 5-10 टन गोबर की सड़ी खाद या कम्पोस्ट का प्रयोग करना लाभकारी होता है। इन खादों की मात्रा के अनुपात में उर्वरकों की मात्रा कम कर देनी चाहिए।
धान, मक्का एवं कपास के बाद गेहूँ लेने वाले क्षेत्रों में गंधक, जस्ता, मैंगनीज एवं बोरान की कमी की संभावना होती है तथा कुछ क्षेत्रों में इसके लक्षण भी सामने आ रहे हैं। ऐसे क्षेत्रों में अच्छी पैदावार के लिए इनका प्रयोग आवश्यक हो गया है। इन पोषक तत्वों की कमी दूर करने का उत्तम तरीका समेकित पोषक तत्व प्रबंधन है जिसमें विभिन्न कार्बनिक स्रोत जैसे फसल अवशेष, हरी खाद, गोबर की खाद एवं विभिन्न प्रकार की कंम्पोस्ट खादों को उर्वरकों के साथ दिया जाता है।
गंधक की कमी को दूर करने के लिए गंधक युक्त उर्वरक जैसे अमोनियम सल्फेट अथवा सिंगल सुपर फास्फेट का प्रयोग अच्छा रहता है। जस्ते की कमी वाले क्षेत्रों में जिंक सल्फेट की 25 कि.ग्रा./है. की दर से धान-गेहूँ फसल चक्र वाले क्षेत्रों में साल में कम से कम एक बार प्रयोग करना चाहिए। यदि इसकी कमी के लक्षण खड़ी फसल में दिखाई दें तो 1.00 कि.ग्रा. जिंक सल्फेट तथा 500 ग्रा. बुझा हुआ चूना 200 ली. पानी में घोलकर 2-3 छिड़काव 15 दिन के अंतर पर करने चाहिए। इसी प्रकार मैंगनीज की कमी वाली भूमियों में 1.0 कि.ग्रा. मैंगनीज सल्फेट को 200 ली. पानी में घोलकर पहली सिंचाई के 2-3 दिन पहले छिड़काव करना चाहिए। इसके बाद आवश्यकतानुसार एक सप्ताह के अंतर से 2-3 छिड़काव की आवश्यकता होती है। छिड़काव साफ मौसम एवं खिली हुई धूप में करें।
गेहूँ की फसल से पहले यदि ढेंचा की हरी खाद का प्रयोग करें तो लगभग 50-60 कि. ग्रा. नत्रजन की बचत की जा सकती है। इसी प्रकार धान-गेहूँ फसल चक्र में मूंग/लोबिया का समावेश कर के मृदा उर्वरता को बढ़ाया जा सकता है।
सिंचाई (irrigation in wheat)
गेहूँ की फसल की सम्पूर्ण अवधि में लगभग 35-40 सें.मी. जल की आवश्यकता होती है। इसके छत्रक (क्राउन) जड़ें निकलने तथा बालियों के निकलने की अवस्था में सिंचाई अति आवश्यक होती है, अन्यथा उपज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। गेहूँ के लिए सामान्यतः 4-6 सिंचाइयों की आवश्यकता होती है। हल्की भूमियों में 6 तथा भारी भूमियों में 4 सिंचाइयाँ पर्याप्त होती है। गेहूँ में 6 अवस्थायें ऐसी हैं जिनमें सिंचाई करना लाभप्रद रहता है लेकिन सिंचाइयों की उपलब्धता के अनुसार निम्न लिखित अवस्थाओं पर सिचाई करनी चाहिए

सिंचाई की उपलब्धता | 1 | 2 | 3 | 4 | 5 | 6 |
छत्रक (क्राउन) जड़ अवस्था (बोने के 20-25 दिन बाद) | हा | हा | हा | हा | हा | हा |
कल्ले निकलने की अवस्था (बोने के 40-45 दिन बाद) | हा | हा | हा | |||
गाँठ बनने की अवस्था (बोने के 60-65 दिन बाद) | हा | हा | हा | हा | हा | |
फूल आने के पूर्व (बोने के 80-85 दिन बाद) | हा | हा | ||||
दुग्ध अवस्था (बोने के 110-115 दिन बाद) | हा | हा | हा | हा | ||
दाने कड़े होने की अवस्था (बोने के 120-135 दिन बाद) | हा |
सिंचाइयां खेत के ढ़ाल के अनुसार छोटी-छोटी क्यारियां बना कर करें। सिंचाई लगभग 6 सें.मी. गहरी होनी चाहिए। प्रथम तथा अन्तिम सिंचाई अपेक्षाकृत हल्की करें। ऊसर भूमियों में सिंचाई हल्की करें जिससे पानी 15-20 घंटों से ज्यादा खड़ा न रहे। फसल को गिरने से बचाने के लिए बाली निकलने के बाद सिंचाई वायु की गति के अनुसार करें।
खरपतवार नियंत्रण (weed control )
गेहूँ की फसल में मुख्यतः गेहूँ का मामा (फैलेरिस माइनर), जंगली जई, बथुआ, जंगली पालक, कृष्णनील, हिरनखुरी आदि खरपतवारों का प्रकोप अधिक होता है। रसायनों के अलावा कुछ ऐसे उपाय हैं जिनसे खरपतवारों को कुछ सीमा तक नियंत्रित किया जा सकता है। ये उपाय निम्न हैं
- हमेशा खरपतवारों से मुक्त बीजों का प्रयोग करें।
- गेहूँ समय से (15 नवम्बर) पहले बोयें। पंक्तियों की दूरी घटा दें तथा जल्दी बढ़ने वाली प्रजातियों का प्रयोग करें।
- गेहूँ बोने से पूर्व एक हल्की सिंचाई करके खरपतवार के बीजों को जमने का मौका दें तथा जुताई करके नष्ट कर दें।

रसायनों द्वारा खरपतवार नियंत्रण सुगम एवं आर्थिक दृष्टि से लाभदायक होता है। निम्न विधियों से चौड़ी एवं संकरी दोनों तरह के खरपतवार नियंत्रित किये जा सकते हैं !
- गेहूँ बोने के तीन दिन के अन्दर पेन्डिमेथालीन की 1000 मि.ली./है. मात्रा को 500 ली. पानी में मिलाकर छिड़काव करने से चौडी पत्ती एवं घास वर्गीय खरपतवार नियंत्रित हो जाते हैं।
- मेट्रिब्युजिन की 175 ग्रा. मात्रा/है. की दर से 500 ली. पानी में घोलकर बोने के 25-30 दिन पर प्रयोग करें अथवा सल्फयूरान की 25 ग्रा. मात्रा 250-300 ली. पानी में घोलकर प्रति हेक्टेयर में छिड़काव करें अथवा 25 ग्रा. सल्फसल्फयूरान + 4 ग्राम मेटासल्फूरान मिथायल को 250-300 ली. पानी में घोलकर एक हेक्टेयर में प्रयोग करें।
रसायनों का छिड़काव खिली धूप वाले दिन जब हवा की गति बहुत कम हो तभी करें। संस्तुत मात्रा से कम या ज्यादा रसायनों के प्रयोग से फसल को हानि हो सकती है।
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फसल सुरक्षा ( crop protection)
प्रमुख रोग एवं नियंत्रण
1. गेरूए (रतुए) (yellow rust)
(i) तना गेरूआ- यह रोग पक्सीनिया ग्रेमिनिस ट्रिटिसाई नामक कवक के कारण होता है। यह रोग पत्तियों एवं तने पर गहरे भूरे रंग के लम्बे स्फोटों के रूप में आता है जिनमें बीजाणुधानी पुंजों की बाह्य त्वचा पर चाँदी के रंग के स्फोट होते हैं। पौधे की बाली पर भी स्फोट उत्पन्न हो सकते हैं। (ii) पर्ण गेरूआ-पक्सीनिया ट्रिटिसाईना नामक कवक से उत्पन इस रोग के लक्षण पत्तियों पर फैले अण्डाकार, भूरे रंग के स्फोटों के रूप में दिखाई पड़ते हैं।

(iii) धारीदार गेरूआ- रोग के लक्षण पत्तियों की शिराओं के साथ-साथ चलने वाली स्फोटों की पीले रंग की धारियों के रूप में दिखाई पड़ते है। पौधे के तने, पर्णाच्छद एवं बाली पर भी ऐसे स्फोट दिखाई पड़ सकते हैं। ये रोग पक्सीनिया स्ट्राईफॉर्मिस नामक कवक से उत्पन होता है। विभिन्न कृषि- जलवायु क्षेत्रों के लिए संतुस्त गेरूआ रोगरोधी किस्मों का प्रयोग। स्फोटों के दिखाई पड़ने पर 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल (टिल्ट 25 ई सी) का एक या दो बार पत्तियों पर छिड़काव करें।
2. पर्ण झुलसा (leaf blast)

यह एक जटिल रोग है जो बाइपोलेरिस सोरोकिनियाना, पायरेनोफोरा ट्रिटिसाई रीपेंटिस एवं अल्टरनेरिया ट्रिटिसाईना द्वारा उत्पन्न होता है। इस रोग में पत्तियों पर बहुत छोटे, गहरे भूरे रंग के, पीले प्रभामंडल से घिरे धब्बे बनते हैं जो बाद में परस्पर मिलकर पर्ण झुलसा उत्पन्न करते हैं। संक्रमित पत्तियाँ जल्दी ही सूख जाती हैं और पूरा खेत दूर से झुलसा हुआ दिखाई पड़ता हैं। संक्रमित बाली में भूरे धब्बे वाले दाने होते हैं।
इस रोग की रोकथाम हेतु रोग प्रतिरोधी किस्में उगाएं। 2.5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यू पी) रसायन के साथ बीजोपचार कर बुआई करें। खड़ी फसल में 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल (टिल्ट 25 ई सी) का छिड़काव करें। खेत में पानी खड़ा न रहने
3. श्लथ कंड (loose smut)
इस रोग के लक्षण बाली निकलने के बाद ही दिखाई पड़ते हैं। संक्रमित बालियों में दानों के स्थान पर बीजाणुओ का गहरे काले रंग का पाउडर भरा होता है। बालियों का प्राक्ष (रैकिस) रोग से अप्रभावित रहता है। यह रोग अस्टिलेगी सेजेटम उपजाति ट्रिटिसाई के द्वारा उत्पन होता है।

इस रोग की रोकथाम हेतु रोगरोधी प्रजातियों के बुआई करनी चाहिए। 2.5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यू पी) या काबेंडाज़िम (बाविस्टीन 50 डब्ल्यू पी) अथवा 1.5 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर टेब्यूकोनेजोल (रैक्सिल) के साथ बीजोपचार करने के बाद बुआई करें।
4. ध्वज कंड (leaf smut)
इस रोग का कारण यूरोसिस्टिस एग्रोपायराई नामक फफूंद है। इस रोग के लक्षण पत्तियों पर चाँदी के रंग के, लम्बे बीजाणुधानी पुंजों के रूप में दिखाई पड़ते हैं जो कवक के गहरे भूरे रंग के बीजाणुओं से भरे होते हैं। संक्रमित पौधे बोने रह जाते हैं, उन पर बालियाँ विकसित नहीं होतीं और वे समय से पहले ही मर जाते हैं।

इस रोग के रोकने के लिए बुआई के पहले बीजों को 0.25 प्रतिशत कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यू पी) से उपचारित करें। जिन किस्मों में यह ध्वज कंड रोग देखा गया हो, उनकी बुआई न करें। रोगप्रतिरोधी किस्में का प्रयोग करें। अन्य फसलों जो इस कवक की अतिथेय नहीं हैं, के साथ फसल आवर्तन (क्रॉपरोटेशन) करें।
5. करनाल बंट (karnal bunt)
टिलिशिया इण्डिका नामक कवक के कारण उत्पन इस रोग में श्रेसिंग के बाद निकले दानों में बीज की दरार के साथ-साथ गहरे भूरे रंग के बीजाणु समूह देखे जा सकते हैं। संक्रमण अधिक गंभीर होने पर पूरा दाना खोखला हो जाता है, केवल बाहरी पर्त शेष रह जाती है।

रोग सहिष्णु किस्मों का प्रयोग करें। 3 ग्रा./कि.ग्रा. बीज की दर से थीरम से बीजोपचार इस रोग की रोकथाम में प्रभावी पाया गया है। बूट लीफ अवस्था में 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेजोल (टिल्ट 25 ई सी) का पत्तियों पर छिड़काव करने से रोग नियंत्रित किया जा सकता है।
6. पर्वतीय बंट (हिल बंट)
टिलीशिया फोइटाडा एवं टि. कैरीज़ नामक फफूंद से उत्पन्न इस रोग के लक्षण बालियों पर दिखाई पड़ते हैं जिनमें दानों के स्थान पर कंड-गोलियों के रूप में बीजाणु भरे होते हैं। ऐसी संक्रमित बालियों से दुर्गन्ध निकलती है।

इस रोग की रोकथाम के लिए रोगरोधी किस्मों का प्रयोग करें। बुआई के लिए संक्रमित खेत से बीज न लें। बोने से पूर्व 0.25 प्रतिशत कार्बोक्सिन (वीटावैक्स 75 डब्ल्यू पी) के साथ बीजोपचार करें।
7. चूर्णी फफूंद (powdery mildew)

यह रोग पौधे की पत्तियों, तने, आच्छद एवं बालियों पर सलेटीपन लिए सफेद चूर्ण (पाउडर) के रूप में दिखाई पड़ता है। ऐसे सफेद पाउडर के धब्बे सम्पूर्ण पत्ती को ढ़क सकते हैं और तापमान बढ़ने पर उनमें पिन की ऊपरी पुंडी की आकृति के गहरे रंग के क्लाइस्टोथीसिया बन जाते हैं। यह रोग इरीसायफी ग्रेमिनिस ट्रिटिसाई नामक कवक के कारण उत्पन होता है।
इस रोग के प्रबन्धन हेतु रोग सहिष्णु किस्मों का प्रयोग करें। रोग के आते ही दाने बनने की अवस्था तक 0.1 प्रतिशत प्रोपीकोनेज़ोल (टिल्ट 25 ई सी) का पत्तियों पर छिड़काव करें। छायादार खेत में गेहूँ की बुआई न करें।
प्रमुख कीट एवं नियंत्रण (insect pest and control)
रबी फसलों में दीमक का प्रकोप अधिक होता है। अतः ऐसे क्षेत्रों में बीजोपचार अवश्य करें। 450 मि.ली. क्लोरोपाईरीफॉस 20 ई.सी. अथवा 750 मि.ली. एण्डोसल्फान 35 ई.सी. कीटनाशी का 5 लीटर पानी में घोल बनाकर 1 क्विंटल बीज पर छिड़क कर मिला दें। यह क्रिया बुवाई से 1 या 2 दिन पूर्व छाँव में पक्के फर्श पर करें। यदि किसी वजह से बीज का उपचार न हो सके और दीमक का प्रकोप दिखाई देने पर खेत की सौ किलोग्राम मिट्टी लेकर उपरोक्त कीटनाशियों द्वारा उसे उपचारित कर खेत में छिड़क दें व बहुत हल्की सिंचाई कर दें।
इसके अतिरिक्त रस चूसने वाले कीट जैसे चंपा के लिए इमिडाक्लोप्रीड 200 एस एल अथवा 20 ग्रा. सक्रिय तत्व का छिड़काव खेत के चारों तरफ दो मीटर बार्डर पर करें। शुरू में पूरे खेत में उपचार की आवश्यकता नहीं होती। अधिक प्रकोप होने पर इस कीटनाशी का प्रयोग पूरे खेत में करें। किन्हीं दो छिड़काव के बीच 15-20 दिनों का अन्तर अवश्य रखें। माइट का प्रकोप असिंचित खेती में अधिक होता है। इसके प्रकोप से पत्तियां शिखर से पीली होने लगती है। माइट का प्रकोप निचली पत्तियों पर अधिक होता है। इसकी रोकथाम के लिए फोस्फामिडान 2 मि.ली./ प्रति ली. पानी में डालकर छिड़काव करना चाहिये। पत्ती व तना काटने वाले कीटों से रोकथाम के लिए एण्डोसल्फान 2.5 मि.ली. प्रति लीटर पानी में बना हुआ घोल छिड़कें।
प्रमुख निमेटोड एवं नियंत्रण (wheat nematodes & control )

गेहूं के ईयर कॉकल निमेटोड (बीज गॉल निमेटोड) की रोकथाम के लिए निमेटोड गॉल (गांठे) रहित साफ बीज का उपयोग करें। बीज को सूखे ही छानने पर बड़ी गांठों को निकालने से भी दूषित बीज सुधर सकता है। मई-जून के महीनों में 2-3 जुताइयां करके खेत की खुला छोडें। निमेटोड की अधिक आक्रमण की संभावना पर एल्डीकार्ब की 5 कि.ग्रा. या 30 कि.ग्रा. कार्बोफ्युरॉन/हे. की दर से बुआई के समय खाद में मिलाकर डालें।
कटाई एवं भण्डारण (Harvesting & storage )
पकने के बाद गेहूँ की फसल की कटाई करनी चाहिए। मुख्यताः कटाई हंसिए से मजदूरों के माध्यम से की जाती है अथवा बैलों से चलने वाले रीपर या कम्बाइन का प्रयोग होता है। अनाज को भंडारण से पहले अच्छी तरह से सूखा लें। भंडारण के लिए पूसा कुठार या पूसा बिन्स का प्रयोग करें।
स्वस्थ बीजोत्पादन के लिए सुझाव
स्वस्थ एवं अच्छी गुणवत्ता वाले बीज के प्रयोग से उत्पादन अधिक मिलता है। प्रजातियों के विकास, संस्तुति एवं बीजोत्पादन के लिए अच्छा नेटवर्क कार्यरत है। यदि उन्नत प्रजातियों के प्रमाणित बीज की उपलब्धता में समस्या हो, निम्न सुझाव अपनाकर कृषक बंधु स्वस्थ बीज का उत्पादन कर सकते हैं
- किसान भाई बीज केन्द्रों अथवा शोध संस्थानों से सस्तुत प्रजाति का बीज थोडी मात्रा में प्राप्त कर लें।
- बीजोत्पादन के लिए अच्छी पैदावार देने वाले खेत का चयन करें।
- बीजोत्पादन के खेत से गेहूँ के दूसरे खेतों में चारों तरफ 3-5 मीटर की दूरी रखें। यह आनुवंशिक शुद्धता रखने के लिए आवश्यक है।
- संस्तुत सस्य क्रियाओं को अपनाएं। आनुवंशिक शुद्धता को बनाये रखने के लिए समय-समय पर अवांछित पौधों एवं रोगग्रस्त पौधों को निकालना आवश्यक है।
- बीजोत्पादन के खेत की कटाई अलग से करें।
- भंडारण से पूर्व बीज को अच्छी तरह सुखा लेवें।
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