सोयाबीन(Soybean) जिसका साइंटिफिक नाम Glycine max है ! भारतीय किसानों के लिये एक ऐसी फसल के रूप में विकसित हुई है जिससे न केवल किसानों बल्कि व्यापारी एवं उद्यमी वर्ग के लोगों के लिये भी भरपूर लाभदायक सिद्ध हुई है।

सोयाबीन(Soybean) एक दलहनी फसल है जिसमें 20 प्रतिशत तेल तथा 40 प्रतिशत प्रोटीन की मात्रा होती है जो कुपोषण की समस्या का निदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है।
इसमें विद्यमान प्रोटीन में महत्वपूर्ण अमिनों एसिड लाईसिन की मात्रा 5 प्रतिशत तक होती है जो ज्यादातर खाद्यान्नों में नही होता है। सोयाबीन(Soybean) में कैल्शियम तथा विटामिन ए भी प्रचुर मात्रा में होते हैं। इनके अलावा इसमें थाईमीन तथा राइबोफ्लेविन की मात्रा भी अन्य दलहनी फसलों की अपेक्षा अधिक होती है।
सोयाबीन(Soybean) फसल वायुमंडल में उपस्थित नत्रजन को भूमि में स्थिर करती है तथा इसके पकने की अवस्था में पत्तियां जमीन पर गिरकर भूमि के सुधार में कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि करती हैं। इस तरह से भूमि की उर्वरा शक्ति तथा भौतिक दशा के सुधार में भी इसका महत्वपूर्ण योगदान है।
मध्य प्रदेश में इसकी सर्वाधिक रकवे में 41.9 लाख हेक्टर (भारत का 70 प्रतिशत) खेती की जा रही है और 44.5 लाख टन पैदावार (भारत का 65.5 प्रतिशत) हो रही है। किन्तु प्रति हेक्टर पैदावार अभी भी सिर्फ 10.6 क्विटल है जबकि सोयाबीन(Soybean) की नई किस्मों की पैदावार क्षमता 25-30 क्विटल प्रति हेक्टर तक की है।
- उन्नत किस्में (Improved variety of Soybean)
- बुआई के लिये खेत की तैयारी : (Field preparation for Soybean)
- बुआई का समय एवं विधि : (Sowing time of Soybean)
- बीज उपचारः (Soybean Seed Treatment)
- पोषक तत्व प्रबंधन : (Fertilizer use in Soybean)
- जल प्रबंधन : (irrigation in soybean)
- खरपतवार प्रबंधन : (weed management in soybean)
- रोग प्रबंधन : (disease of soybean and their management)
- कीट प्रबंधन : (Insect of Soybean and their management)
उन्नत किस्में (Improved variety of Soybean)
सोयाबीन(Soybean) की उन्नत किस्मों में प्रमुख हैं-
जे.एस.-335, जे.एस.-93-05, जे.एस.-90-41एन.आर.सी.-7
इन किस्मों की उत्पादन क्षमता करीब 25-30 क्विटल प्रति हेक्टर है।
करीब 100 दिनों में तैयार होने वाली इन किस्मों में रोग एवं कीट प्रतिरोधक क्षमता पुरानी किस्मों की तुलना में ज्यादा है।
बुआई के लिये खेत की तैयारी : (Field preparation for Soybean)
दो या तीन वर्षों में एक बार गहरी जुताई की आवश्यकता होती है। इससे बार बार उगने वाले खरपतवारों का तथा जमीन के अन्दर छिपे हुए कीडों का नाश होता है।
खेत समतल हो तथा कहीं पानी न रूके। हो सके तो खेत के चारों ओर नालियाँ बनायें और खेत का आकार बडा होने पर हर 20-30 मीटर बाद नाली बनायें ताकि बरसात का पानी आसानी से नालियों द्वारा बहकर चला जाये। अन्यथा खेत में पानी रूकने से सोयाबीन(Soybean) की फसल की जड़े सड़ जाती है एवं नत्रजन बनाने वाली जडों की गांठों पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है इससे उत्पादन में 20-30 प्रतिशत की कमी आ सकती है।
सोयाबीन(Soybean) की फसल के लिये जमीन की विशेष तैयारी की आवश्यकता नहीं है किन्तु जिन खेतों में एक तरफ ढलान है उनमें ढलान के विपरीत दिशा में बुआई करनी चाहिये।
इससे जमीन के अन्दर ज्यादा पानी रूकेगा एवं आगे जब पानी की कमी होगी तब फसल को उसका लाभ मिलेगा। आखिरी जुताई से पहले फोरेट 10 G दानेदार दवा की 10 किलोग्राम मात्रा प्रति हेक्टर की दर से डालकर मिट्टी में मिला देनी चाहिये ।
इससे शुरूवाती अवस्था में पत्तों का रस चूसने वाले तथा तने की मक्खी एवं गर्डल बिटल की रोकथाम करने में सहायता मिलती है।
बुआई का समय एवं विधि : (Sowing time of Soybean)
माह जून के तीसरे सप्ताह से जुलाई के दूसरे सप्ताह तक का समय बुआई के लिये उपयुक्त है। बुआई के समय खेत में उपयुक्त नमी का होना आवश्यक है।
बुआई 30 से 45 से.मी. (12 से 18 इंच) की दूरी पर (पंक्ति के बीच) तथा पौधे की दूरी 5 से.मी. (2 इंच) होनी चाहिये । इससे कम दूरी पर बुआई करने से पौधों की संख्या प्रति हेक्टर जरूरत से ज्यादा हो जाती है तथा पौधों को हवा, पानी, प्रकाश एवं पोषक तत्वों की कमी होने लगती है, पैदावार पर इसका विपरीत प्रभाव पड़ता है।
सोयाबीन(Soybean) की उच्च पैदावार के लिये उचित पौध संख्या सामान्यतः 4 से 6 लाख पोध संख्या अच्छी पैदावार लेने के लिये पर्याप्त है।
बीज की मात्रा, बीज का आकार, अंकुरण क्षमता एवं पौध संख्या की आवश्यकता पर निर्भर करती है।
साधारणतः 70 से 80 किलोग्राम बीज प्रति हेक्टर जिसकी अंकुरण क्षमता 70 प्रतिशत या उससे अधिक हो की आवश्यकता होती है। सामान्य समय से देर पर बुआई करने के लिये 25 प्रतिशत अधिक बीज का प्रयोग करना चाहिये।
बुआई की गहराई 3 से 4.5 से.मी. होने से बीज अच्छा उगता है। ज्यादा गहरा बोने पर बीज उगने की क्षमता कम हो जाती है।

बीज उपचारः (Soybean Seed Treatment)
सोयाबीन(Soybean) बीज का बुआई के पहले उपचार अति आवश्यक है।
फफूंदनाशक दवा से:
भूमिजनित रोगों के जीवाणु बीज में पहुंचकर अंकुरण के समय बीज विगलन तथा जड एवं तना गलन जैसे रोग उत्पन्न कर सकते हैं। इसके अलावा कवक, जीवाणु तथा विषाणु जनित रोग भी लगते हैं।
इनके नियंत्रण के लिये बीज को – थायरम (1.5 ग्राम) बाविस्टीन (1.5 ग्राम) या थायरम (1.5 ग्राम) डायथेन एम-45 (1.5 ग्राम) प्रति किलो बीज की दर से उपचारित करना चाहिये ।
अच्छे अंकुरण क्षमता वाले बीज पर पानी का छींटा मारकर उपर्युक्त मात्रा में दवा डालकर हाथों पर दस्ताने या प्लास्टिक पहनकर बीज में दवा मिलानी चाहिये एवं उसे छांया में फैलाकर सुखाना चाहिये। बीज उपचार ड्रम का उपयोग करने से यह कार्य अच्छी तरह से सम्पन्न किया जा सकता है।
नत्रजन कल्चर से: (Soybean treatment with nitrogen culture)
जड ग्रथियों के उचित संख्या व आकारों के निर्माण के लिये यह आवश्यक है | कि बीज को फफूंदनाशक दवाओं से उपचारित करने के उपरांत यजोबियम कल्चर से उपचारित करने से नत्रजन की जरूरत कम होती है।
प्रति किलो बीज के लिये 5 ग्राम कल्चर की जरूरत होती है। कल्चर मिलाने से पहले 50 ग्राम गुड का एक लीटर गरम पानी में घोल बनाकर, छिडकने से कल्चर सही तरीके से बीज में मिलाया जा सकता है।
उपचार की बाद बीज छाया में रखें। बुआई छ: घंटे के अन्दर कर दें। कल्चर के इस्तेमाल से 15-20 किग्रा नत्रजन खड़ी फसल को तथा 30 से 40 किलो नत्रजन का लाभ अगली फसल में भी मिलता है। इससे उपज में लगभग 10-15 प्रतिशत तक वृद्धि पायी जा सकती है।
पी. एस. बी. कल्चर से: (soybean treatment with Phosphorous solubilizing bacteria)
जमीन में संचयित फास्फोरस की मात्रा को पिघलाकर उपलब्धता बढाने के लिये बीज को रायजोबियम कल्चर के साथ साथ पी.एस.बी. कल्चर 5 ग्राम प्रति किलो बीज की दर से उपयोग करना चाहिये।
इस कलचर के उपयोग से भूमि में उपस्थित उर्वरकों से प्रदाय 70 प्रतिशत से अधिक अघुलनशील फास्फोरस सूक्ष्म जीवाणु द्वारा घुलनशील एवं गतिशील अवस्था में परिवर्तित होकर पौधों को उपलब्ध होता है।
इसके फलस्वरूप पौधों की अच्छी वृद्धि व विकास होती है तथा 20-25 किलोग्राम फास्फोरस की बचत होती है एवं 8-10 प्रतिशत तक उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती है।
रायजोबियम एवं फास्फोरस कल्चर को मिलाकर बीज उपचार करने से संतुलित पोषक तत्वों की पूर्ती होती है।
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पोषक तत्व प्रबंधन : (Fertilizer use in Soybean)
सोयाबीन(Soybean) की फसल को पोषक तत्वों की भारी मात्रा में आवश्यकता होती है। वास्तव में सोयाबीन(Soybean) फसल द्वारा प्रति क्विटल उपज पर 7-8 किलो नत्रजन, 0. 65 किलो स्फुर, 6.3 किलो पोटाश तथा 0.5 किलो गंधक का भूमि से हास होता है।
20-25 क्विटल/हेक्टर की फसल प्राप्त करने के लिये साधारणतः 150-190 किलो नत्रजन, 13 से 16 किलो स्फुर, 125-160 किलो पोटाश एवं 10 किलो गंधक की जरूरत पड़ती है जो वह भूमि से लेती है।
खेत की मिट्टी का परीक्षण करने के उपरान्त खाद एवं उर्वरक की मात्रा का अनुमान लगाया जा सकता है। अतः हर 4-5 साल के बाद अपने खेत की | मिट्टी का परीक्षण जरूर कराना चाहिए।
सामान्यतः गोबर की खाद या कम्पोस्ट 10 टन गाडी/हेक्टर बुआई से 15-20 दिन पहले डालना लाभदायक होता है। | इससे भूमि में वायुसंचार उचित रहता है तथा जलधारण शक्ति में बढोतरी होती है।
सोयाबीन(Soybean) दलहनी फसल होने के कारण वायुमंडल के नत्रजन को भूमि में स्थिर | करने की क्षमता रखती है। अतः इसको 15-20 किलो नत्रजन की आपूर्ति उर्वरक द्वारा करना समूचित पाया गया है।
इसे फास्फोरस की अधिक मात्रा में आवश्यकता होती है क्योंकि पौधों की जीवित कोशिकाओं में उर्जा स्थानांतरण की क्रिया में फास्फोरस की मुख्य भूमिका होती है।
परीक्षणों से ज्ञात हुआ है कि फास्फोरस के प्रयोग से जडों की सघन वृद्धि, जड ग्रंथियों का समुचित विकास तथा भूमि में अधिक मात्रा में नत्रजन का स्थिरीकरण होता है। साधारणतः सोयाबीन(Soybean) में 60-90 किलो फास्फोरस की आवश्यकता होती है।
परीक्षणों से यह सिद्ध हुआ है कि सोयाबीन(Soybean) की फसल में 90 किलो/हेक्टर फास्फोरस की मात्रा देने से गेहूँ की अगली फसल में फास्फोरस देने की जरूरत नहीं पडती है।
सोयाबीन(Soybean)-गेहूँ फसल पद्धति में फास्फोरस स्तरों का उत्पादन पर प्रभाव
फास्फोरस की मात्रा (कि.ग्रा/हेक्टर) | उपज (क्विटल/हेक्टर) soyabean | उपज (क्विटल/हेक्टर) wheat |
45 किलो – सिर्फ सोयाबीन(Soybean) में | 16.3 | 32.7 |
45 किलो – सिर्फ गेहूँ में | 14.7 | 34.1 |
45 किलो – सोयाबीन(Soybean) + 45 किलो गेहूँ में | 17.1 | 39.2 |
90 किलो – सिर्फ सोयाबीन(Soybean) में | 19.6 | 41.9 |
वैसे तो भूमि में पोटाश की कमी नहीं है परन्तु उसकी उपलब्धता बाधित होने के कारण इसकी कमी से सोयाबीन(Soybean) के पौधों की कार्यिकी क्रियाओं पर बहुत बुरा असर पड़ता है।
पोटाश की कमी से पौधों के फास्फोरस की प्राप्ति पर भी विपरीत असर पड़ता है क्योंकि इनकी आपस में धनात्मक क्रिया होती है। इससे जड ग्रर्थियों की संख्या, वजन तथा पैदावार में बढ़ोत्तरी होती है।
साधारणतः 30 से 40 किलो प्रति हेक्टर की दर से पोटाश की आवश्यकता हर फसल को होती है
फास्फोरस व पोटाश का सोयाबीन(Soybean) जड ग्रन्थि संख्या, वजन तथा उपज पर प्रभाव
फास्फोरस (किग्रा/हेक्टर) | पोटाश (किग्रा/हेक्टर) | जड ग्रन्थियाँ प्रति पौधा (संख्या) | जड ग्रन्थियाँ शुष्क भार (मिली गाम) | उपज (क्वि/हे) |
0 | 0 | 35 | 4.4 | 17.4 |
60 | 0 | 59 | 5.6 | 18.4 |
0 | 112 | 79 | 7.4 | 21.1 |
60 | 112 | 114 | 7.9 | 25.7 |
उर्वरकों की संपूर्ण मात्रा का प्रयोग बुआई से पहले या बुआई के समय बीज से 4 से 5 से.मी. नीचे करना चाहिये।
किसी भी दशा में बीज व उर्वरक को एक साथ मिलाकर नहीं बोना चाहिये। नमी की कमी होने पर इससे बीज के अंकुरण पर बुरा असर पड़ता है।
सोयाबीन(Soybean) की फसल में बीज को पी.एस.बी. कल्चर से उपचारित करने से मिटटी में स्फर की उपलब्धता 20 से 25 प्रतिशत बढती है। इसका लाभ जडे मजबूत एवं गुच्छेदार बनाने में तथा जैव ग्रंथियों की बढवार पर पडता है जिससे रायजोबियम जीवाणु की भी कार्यक्षमता बढती है। नत्रजन उत्पादन की मात्रा में भी बढत होती है।

गंधक : (sulphur in Soybean)
मध्यप्रदेश की भूमि में खासकर सोयाबीन(Soybean) की फसल में तेल की मात्रा अधिक होने के कारण गंधक की कमी पाई गई है अतः इस पोषक तत्व की कमी को दूर करने के लिये 20 किलो गंधक/हेक्टर या 100 कि.ग्रा. जिप्सम/हेक्टर की दर से बुआई के समय डालना चाहिये। इससे तेल की मात्रा तथा उसकी गुणवत्ता में बढोतरी होती है।
फास्फोरस के लिये सिंगल सुपरफास्फेट खाद का उपयोग करने से गंधक अलग से देने की जरूरत नहीं पडती है।
जस्ता : (Zinc in Soybean)
सिंचाई वाली भूमि में जहाँ साल में दो या तीन फसलें ली जा रही हैं वहाँ जस्ते की कमी पाई जा सकती है। जस्ते की कमी की वजह से बीजों के भराव एवं उनकी वृद्धि के लिये आवश्यक हारमोन्स की कमी हो जाती है।
इसकी कमी से | सर्वप्रथम पत्तियों की अंर्तधारियाँ सफेद होने लगती हैं एवं बाद में झुलस जाती हैं। पत्तियों का अगला सिरा मुर्भाकर बादामी रंग का हो जाता है। पौधे बोने रह जाते हैं तथा उनकी फलधारण शक्ति में भारी कमी आ जाती है ।
जिंक सल्फेट 50 किलो/हेक्टर खाद के रूप में देने से इसकी पूर्ति की जा सकती है। तीन वर्ष में कम से कम एक बार जस्ता देना चाहिये ।
खडी फसल में 45 से 50 दिन की फसल होने पर इसका 0.5 प्रतिशत घोल बनाकर छिडकाव भी किया जा सकता है।
संतुलित खाद एवं उर्वरक की मात्रा के उपयोग से उत्पादन एवं आय में 30 से 50 प्रतिशत की बढोत्तरी पाई जा सकती है।
जल प्रबंधन : (irrigation in soybean)
सोयाबीन(Soybean) की फसल को साधारणतः सिंचाई की आवश्यकता नहीं होती है। परन्तु यदि बीच में लम्बा सूखा काल हो तो प्रमुख क्रांतिक अवस्थाओं जैसे बीज अंकुरण, वानस्पतिक वृद्धि, पुष्पन व फली बनने की अवस्था में सिंचाई की आवश्यकता पड सकती है।
फसल को पुष्पन तथा फली में दाना पड़ने की अवस्था में पानी की कमी अर्थात सूखे से जरूर बचाना चाहिये। सूखे की स्थिति में यदि संभव हो तो पुष्पन एवं पौधों की नन्हीं अवस्था में भी सिंचाई देनी चाहिये ।
इस अवस्था में पानी की कमी से उत्पादन में 50 प्रतिशत तक की कमी हो सकती है। सोयाबीन(Soybean) की फसल के अच्छे अंकुरण तथा पौधों के जमाव के लिये यह आवश्यक है कि भूमि में वायुसंचार अच्छा रहे।
अतः बुआई के तुरन्त बाद खेत में पानी भरा न रहे । फूल एवं फली बनने की अवस्था में भी खेत में पानी भर जाने से उपज में 12 से 21 प्रतिशत की कमी हो सकती है।
इसलिये खेत में बुआई के समय हर 20 से 30 मीटर की दूरी पर नालियाँ बनाकर खेत का पानी बाहर निकालने की व्यवस्था करनी चाहिये।
खरपतवार प्रबंधन : (weed management in soybean)
सोयाबीन(Soybean) की फसल में तरह तरह के खरपतवार उगते हैं जिनकी तीव्रता शुरू के 45 दिनों तक अधिक होती है इनकी वजह से सोयाबीन(Soybean) की फसल में भारी नुकसान (40-60 प्रतिशत) होता है।
खरपतवार नियंत्रण करने के लिये पहली निंदाई बुआई के 15-20 दिन बाद तथा दूसरी 35-40 दिन बाद डोरा चलाकर या हस्त चलित एवं स्व-चलित निंदाई यंत्रों से करनी चाहिये ।
रसायनों के उपयोग से भी खरपतवारों का नियंत्रण किया जा सकता है। इसके लिये उपयुक्त रसायनों में लासो 40 ई.सी. चार लीटर अथवा स्टाम्प 3.5 लि. डुआल 2 लि. आदि रसायन 500-600 लीटर पानी में घोलकर प्रति हेक्टर अंकुरण से पूर्व तथा वोवनी के तुरन्त बाद छिडकाव करें। बोवनी से पूर्व ब्रासालीन 45 ई.सी. या ट्रे फलान 2 किलोग्राम 700 लीटर पानी में घोलकर छिटक कर मिट्टी में मिलाने से भी खरपतवारों का संतोषजनक नियंत्रण किया जा सकता है।
दानेदार खरपतवार नाशकों का भी उपयोग किया जा सकता है। इनका उपयोग ज्यादा सरल है।
बुआई के समय सीधे या खाद में मिलाकर छिडकाव किया जा सकता है। इस श्रेणी का उत्तम खरपतवार नाशक इस समय लासो 10 जी के रूप में उपलब्ध है। इसका उपयोग 20 किलो/हेक्टर की दर से समतल भूमि में करना चाहिये।
सोयाबीन(Soybean) की खडी फसल में भी खरपतवार नाशकों का प्रयोग किया जा सकता है। इस श्रेणी में परस्यूट (10 प्रतिशत) एवं टरगासुपर (5 ई.सी.) 1 लीटर/हेक्टर से अच्छे परिणाम मिले हैं। इसका प्रयोग जब खरपतवार दो या तीन इंच के हों अथवा 2-3 पत्ती की अवस्था में हो और खेत में नमी हो तब करें।
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रोग प्रबंधन : (disease of soybean and their management)
सोयाबीन(Soybean) की फसल में प्रमुख बीमारियों में पीला मोजेक, सामान्य मोजेक, कली की अंगमारी (बड ब्लाईट) इत्यादि। इनकी रोकथाम के लिये एग्रोमाईसिन या स्ट्रेपटोसाईक्लिन की 3 तथा 2.5 ग्राम डाइथेन एम-45 को 10 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर बुआई के 30 से 40 दिन बाद छिड़काव अवश्य कर देना चाहिये।
आवश्यकता पड़ने पर इसका दूसरा छिडकाव भी करें। इसके अलावा गेरूआ रोग का प्रभाव भी बहुत अधिक मात्रा में नुकसान पहुंचाता है।
गेरूआ रोग से बचाव के लिये समुचित उपाय : (soyabean ocheria disease)
- बे-मौसम सोयाबीन(Soybean) उगाना बन्द करें।
- अपने आप उगने वाले सोयाबीन(Soybean) के पौधों को नष्ट करें।
- मेड पर उगने वाला अनावश्यक कचरा नष्ट करें।
- रस्ट प्रतिरोधक किस्मों का प्रयोग करें।
- गहरी जुताई करें।
- एक ही तरह के फसल चक या एक ही तरह से खेती करने की पद्धति में बदलाव करें। सोयाबीन(Soybean) के बदले ज्वार, मक्का, अरहर ले सकते हैं। इसके अलावा इन्ही फसलों को सोयाबीन(Soybean) के साथ अन्तर्वर्ती फसल के रूप में लें।
- समय पर बुआई करें।
- बुआई के लिये उच्च कोटि के बीज का प्रयोग करें।
- रोग से ग्रसित पौधों को शुरूवाती अवस्था में ही उखाड कर नष्ट कर दें।
- रस्ट को रोकने के लिये औषधी का उपयोग : मेन्कोझेब 75 प्रतिशत को 1.5 से 2 किलोगाम/हेक्टर अथवा हेक्जाकोनाझोल (केन्टाफ) या प्रोपेकोनाजाल (टिल्ट) 1 मि.ली. या ट्राईडिमेफॉन (बेलेटॉन) 1 ग्राम दवा प्रति लीटर पानी में घोलकर छिडकाव करें। रोग की अधिकता पर दूसरा छिडकाव 15 दिनों के बाद पुनः करें।
कीट प्रबंधन : (Insect of Soybean and their management)
सोयाबीन(Soybean) की फसल में प्रमुख रूप से तना छेदक मक्खी, गर्डल बीटल, हरी अर्धकुन्डल इल्ली, तम्बाकू की इल्ली, पत्ती छेदक इल्ली एवं फली छेदक का प्रकोप अधिक देखा गया है।
तना छेदक मक्खी: (Stem borer of soybean)
इस कीट से ग्रसित पौधे के तने को चीरने पर एक सुरंग दिखती है। इसके प्रकोप से उपज में 15-20 प्रतिशत की कमी पायी गयी है।
इसका प्रकोप अंकुरण होने के पश्चात से ही शुरू हो जाता है। इसकी रोकथाम के लिये बुआई के समय फोरेट 10 जी – 10 किलो ग्राम या कार्बाफ्यूरान 3 जी – 3 किलो ग्राम प्रति हेक्टर कुडों में डाले।
गर्डल बिटल (चक भृग):
इसका प्रकोप फसल की प्रारंभिक अवस्था में 7-10 दिन के बाद शुरू होता है इसके प्रकोप से नये पर्णवृत्तों व शाखाओं पर वलय के रूप में देखा जा सकता है। इसकी हानि सीमा 4 भंग प्रति मीटर पंक्ति है।
रोकथाम के लिये तुरन्त ट्रायझोफास 0.8 ली/हे या क्विनालफॉस 1.0 ली/हे का छिड़काव करें जरूरत होने पर 10-15 दिन में दुबारा एक छिड़काव करें।
हरी अर्धकुडलक इल्ली: (soybean green semiconductor worm)
यह सोयाबीन(Soybean) की पत्तियों को पूरी तरह से खुरच-खुरच कर खा लेती हैं जिससे पत्तियों की शिराओं के अवशेष जाल के रूप में दिखते हैं। इससे उपज में 40-50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है।
इसकी रोकथाम के लिये पत्तियों पर कीट के अंडों तथा सुंडियों को नष्ट कर देना चाहिये । इस कीट की आर्थिक हानी सिमा फूल आने की अवस्था में 4 इल्लियां प्रति मीटर पंक्ति या फली लगने की अवस्था में 3 इल्लियां प्रति मीटर पंक्ति है।
फली छेदक इल्ली: (Soybaen Pod borer)
इल्ली फली के अन्दर घुसकर दानों को नुकसान पहुंचाती है। इसकी आर्थिक हानि सीमा फली की अवस्था में 1 इल्ली प्रति मीटर पंक्ति है।
हरी अर्धकुंडलक इल्ली एवं फली छेदक इल्ली की रोकथाम के लिये क्लोरोपायरीफॉस 1.5 ली/हे या मैथोमिल 1 किलो/हे का छिड़काव फूल आने के उपरांत पहला एवं 10-15 दिनों के अन्तराल पर दूसरा छिड़काव करें।
अन्तर्वीय फसल प्रणाली द्वारा कीट नियंत्रण : (intercropping in Soybean)
सोयाबीन(Soybean) की फसल लगातार लेने से कीट एवं रोग प्रकोप में वृद्धि हो रही है। इसके नियंत्रण के लिये फसल प्रणाली में विविधता लाना आवश्यक है। ऐसा करने के लिये सोयाबीन(Soybean) फसल को मक्का या अरहर के साथ अन्तरवर्तीय फसल के रूप में अपनाये जाने से कीट एवं रोगों का फैलाव रोकने में सहायता मिलती है।
सोयाबीन(Soybean) के साथ अरहर बोने का एक फायदा यह भी मिलता है कि बारानी क्षेत्र में जहाँ रबी की फसल बुआई के समय जमीन में नमी की कमी हो जाती है वहाँ इस प्रणाली को अपनाने से पूर्ण नुकसान से बचा जा सकता है।
किसानों के खेतों पर प्रयोगों से यह स्पष्ट हो चुका है कि (सारणी-5) अन्तवर्तीय फसल प्रणाली से सोयाबीन(Soybean) की फसल में कीट प्रकोप भारी कमी आती है एवं उत्पादन एवं आमदानी में रू. 10,000/हे की बढ़ोत्तरी हो सकती है।
अन्तर्वीय पद्धति से लाभ (benefits of intercropping in soybean)
फसल चक्र | अनुपात | कीट प्रकोप में कमी (%) | औसत अतिरिक्त लाभ (रू./हे) | सोयाबीन(Soybean) तुल्य उत्पादन क्विं/हे |
सोयाबीन+ अरहर | 4 अनुपात 2 | 12.7 | 20260 | 28.7 |
सोयाबीन+मक्का | 4 अनुपात 2 | 8.65 | 18500 | 26.0 |
एकल सोयाबीन | – | 29.4 | 6400 | 12.0 |
एकल अरहर | – | 16.3 | 16200 | 23.2 |
एकल मक्का | – | 3.75 | 12600 | 18.6 |
सोयाबीन की खेती की जानकारी देने के लिए आपका dhanywad