धनिया (कोरियन्ड्रम सेटाइवम एल.) एक महत्वपूर्ण बीजीय मसाला फसल है जो कि एपिएसी (एम्बेलीफेरी) कुल के अंतर्गत आती है ! यह परंपरागत फसल है जिसमें परागकण कीड़ों द्वारा होता है।
इसकी हरी पत्तियां एवं सूखे हुए बीज, दोनों ही मसाले के रूप में उपयोग लिए जाते हैं। इसकी हरी पत्तियां सब्जी, चटनी अथवा कई तरह की तरकारियों में व पिसा हुआ धनिया सब्जी एवं खाद्य पदार्थों में स्वाद एवं सुगंध बढ़ाने के काम आता है।
धनिया में कई औषधीय गुण भी पाये जाते हैं जिसके कारण इसका प्रयोग अपच, पेचिस, जुकाम, मूत्र से सम्बन्धित रोग, इत्यादि में होता है। यही कारण है कि इसकी खेती बहुत ही छोटे से क्षेत्र (गृह-वाटिका) से लेकर बड़े स्तर (व्यावसायिक उद्देश्य हेतु) तक की जाती है।
वर्तमान समय मे तो इसकी फसल छायाघर जैसी संरक्षित संरचनाओं में तैयार करके सालभर उगाई जा रही है। मसालों का विशेष महत्व इनमें पाए जाने वाली खुशबू वाष्पशील तेल के कारण होती है एवं इस वाष्पशील तेल की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है, जो कि किस्म, वातावरणीय कारक, इत्यादि पर निर्भर करती है। यह मात्रा इनकी गुणवत्ता को दर्शाती है।
बीजीय मसालों के अंतर्गत वे सभी एक वर्षीय शाकीय पौधे आते हैं, जिनके सूखे बीज या फलों का उपयोग मसालों के रूप में किया जाता है। ये मसाले मनुष्य के लिए एक तरह से प्रकृति का उपहार है जो कि भोजन को स्वादिष्ट करने के साथ-साथ औषधियां मूल्य को भी जोड़े रखती हैं।
मसाला फसलों को मुख्य रूप से दो वर्गों में वगीकृत किया जा सकता है!
प्रमुख बीजीय मसालें : मेथी, जीरा, धनिया एवं सौंफ।
गौण बीजीय मसाले : अजवाइन, कलौंजी, सोवा, कारावे, सेलरी एवं विलायती सौंफ।
भारत का प्राचीन काल से ही मसाला उत्पादन में अद्वितीय स्थान रहा है। इसी कारण से देश ‘मसालों की भूमि’ के नाम से विश्वविख्यात है। इनकी खेती राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश, हरियाणा, पंजाब, बिहार, उत्तरप्रदेश इत्यादि राज्यों में बहुतायात क्षेत्रफल में की जाती है।
राजस्थान एवं गुजरात राज्य इनके क्षेत्रफल एवं उत्पादन में अग्रणी भूमिका निभाते हैं जिसके कारण इन दोनों राज्यों को ‘बीजीय मसालों का कटोरा’ के नाम से जाना जाता है।
जलवायुः
धनिया को मुख्यतः सभी प्रकार की जलवायु वाले क्षेत्रों में जहां तापमान अधिक न हो तथा वर्षा का वितरण ठीक हो, सफलतापूर्वक उगाया जा सकता है। शुष्क एवं ठंडा मौसम अधिक उपज एवं गुणवत्ता के लिये अनुकूल रहता है।
दाने बनते समय अधिक तापमान व तेज हवा उपज पर तथा वाष्पशील तेल पर विपरित प्रभाव डालती है। ऐसे क्षेत्र जहां फूल आने के समय (फरवरी-मार्च) में पाला पड़ने की संभावना रहती है, वो इस फसल के लिए उपर्युक्त नहीं रहते हैं।
पुष्प प्रारंभ होने पर अगर आकाश में बादल छाये रहते हैं तो चंपा या मोयला व अन्य बीमारियों की संभावना भी बढ़ जाती है।

भूमिः
इसकी खेती लगभग सभी तरह की मृदाओं में आसानी से की जा सकती है। उत्तम गुणवत्ता व उत्पादन के लिए मध्यम से भारी दोमट मृदा जिसमें जल निकास की अच्छी सुविधा हो साथ ही जीवांश पदार्थों की भी प्रचुरता हो अच्छी रहती है। मृदा का पी.एच. मान 6.07.5 के मध्य सर्वोत्तम रहता है।
उन्नत किस्में:
आर.सीआर. 20, आर.सीआर. 41, आर.सीआर. 435, आर.सीआर. 436, आर.सीआर. 684, आर.सीआर. 480, ए.सीआर. 1 (अजमेर धनिया-1), गुजरात धनिया 1, गुजरात धनिया 2, हिसार सुगंध, हिसार आनंद, हिसार सुरभि, राजेन्द्र स्वाति, सी.एस.-6 (स्वाति), सी.एस.-4 (साधना), पंत हरितमा इत्यादि अधिक उपज देने वाली उन्नतशील प्रजातियां हैं।
खेत की तैयारी:
भूमि की तैयारी के लिए एक गहरी जुताई डिस्क फ्लो या मिट्टी पलटने वाले हल से तथा एकदो उथली जुताई कल्टीवेटर से करके खेत हो भुर-भुरा कर लें। साथ ही सिंचित नमी का ह्रास रोकने के लिए शीघ्र पाटा लगा दें जिससे नमी संरक्षण के साथ-साथ ढेले भी फूट जाएंगे।
बुवाई का समय एवं बीज दरः
पत्तियों के उद्देश्य लिए बुआई का समय अधिक मायने नहीं रखता है परन्तु बीज फसल के लिए समय का ध्यान रखना जरूरी है क्योंकि पाला उत्पादन को बहुत प्रभावित करता है।
मध्य अक्टूबर से मध्य नवम्बर तक इसकी बुआई का सर्वोत्तम समय है। पाला पड़ने वाले क्षेत्रों में बुआई ऐसे समय पर संभावना न रहे, क्योंकि इस अवस्था में पाले से सबसे अधिक नुकसान पहुंचता है।
10 से 12 किलोग्राम बीज प्रति हैक्टेयर सिंचित क्षेत्रों के लिए तथा असिंचित क्षेत्रों के लिए 20 किग्रा प्रति हैक्टेयर प्रर्याप्त होता है।
बीजोपचार एवं बुआई का तरीका:
बुआई से पूर्व बीजों को 2 ग्राम कार्बेन्डाजिम (बाविस्टिन) या ट्राईकोडर्मा 6-10 ग्राम प्रति किलो बीज से उपचारित कर ले।
बीजोपचार के दौरान ध्यान रखे की यदि फफूंदनाशी (फन्जीसाइड), कीटनाशी (इन्सेक्टीसाइड) एवं जैविक कल्चर (राइजोबियम कल्चर) का प्रयोग कर रहे है तो इनको सही क्रम में बीज के ऊपर लगावें।
सबसे पहले बीज पर फफूंदनाशी उसके बाद कीटनाशी एवं अंत में जैविक कल्चर का प्रयोग करें, याद रखने के लिए इस क्रम को एफ.आई.आर बोलते हैं। टाईकोडर्मा एक जैव नियंत्रक, मृतोपजीवी, हरे रंग की फफूंद होती है, जो मृदा में सड़े-गले कार्बनिक पदार्थों के ऊपर तीव्र गति से वृद्धि करती है। यह रोग उत्पन्न करने वाले मिट्टी जनित फफूंदों को बढ़ने से रोकता है एवं उनका विनाश करता है।
धनिया की बुआई दो तरह से की जाती है, छिटकवां विधि से व पंक्ति विधि द्वारा परन्तु पंक्ति विधि द्वारा बुआई अच्छी रहती है। इससे बीज दर में बचत के साथ-साथ अन्य शस्य क्रियाओं को करने में भी आसानी रहती है।
धनिया के बीजों को बुआई से पहले हल्का दबाकर या मशीन (सीड स्लिटर) द्वारा दो भागों में विभाजित कर लेना चाहिए।
धनिया में पंक्ति से पंक्ति की दूरी 25-30 सेंमी. व पौध से पौध की दूरी 15 सेमी. रखी जाती है। बीजों को 3-4 सेमी. से ज्यादा गहरा नहीं बोना चाहिए।
सिंचाई प्रबन्धनः
धनिया की सिंचित फसल में पलेवा के अतिरिक्त भारी मिट्टी में लगभग 3-4 सिंचाई तथा हल्की बलुई दोमट मिट्टी में लगभग 6-7 सिंचाईयों की आवश्यकता होती है।
सिंचाई के समय का निर्धारण भूमि का प्रकार एवं स्थानीय मौसम के आधार पर किया जाना चाहिए परन्तु निम्न क्रांतिक अवस्थाओं में सिंचाई करना आवश्यक है।
1. अंकुरण के समय (8-10 दिन बाद),
2. वानस्पतिक वृद्धि अवस्था (50 दिन),
3. पुष्पन अवस्था (80 दिन) एवं
4. बीज वृद्धि अवस्था (110 दिन) में।
वर्तमान में धनिया मे टपक या बूंद- बूंद सिंचाई पद्धति भी काफी प्रयोग की जा रही है इससे पानी की बचत तो हो रही है। साथ ही उर्वरक भी इससे सीधे जड़ क्षेत्र में पहुंचाए जा सकते हैं।
खरपतवार प्रबन्धन:
बुआई के कुछ समय पश्चात् विभिन्न प्रकार के खरपतवार भी उग आते हैं जो कि मुख्य फसल के साथ-साथ पोषक तत्वों, स्थान, नमी, आदि के लिए प्रतिस्पर्धा करते रहते हैं। साथ ही ये विभिन्न प्रकार की कीट एवं बीमारियों को भी आश्रय प्रदान करते हैं। अतः जरूरी है जब खरपतवार छोटा रहे उसी समय खेत से बाहर निकाल दें इसके लिए सिंचित क्षेत्रों में पहली निराई-गडाई फसल बोने के 30-35 दिन बाद एवं दूसरी निराई-गुड़ाई आवश्यकतानुसार लगभग 50-60 दिन पश्चात् करें।
असिंचित क्षेत्रों में बुआई के 40-45 दिन बाद जब पौधे 78 सेमी. बड़े हो जाएं तब यह कार्य करें। खरपतवारों की रोकथाम हेतु खरपतवारनाशी का भी प्रयोग किया जा सकता है।
धनिया में रसायनिक खरपतवार नियंत्रण के लिए पेण्डीमेथालिन 1.0 कि.ग्रा. सक्रिय तत्व बुआई के पश्चात् तथा अंकुरण से पूर्व 500-600 लीटर पानी में घोल बनाकर आवश्यक है।
खाद एवं उर्वरकः
जहा तक हो सके हमेशा मृदा नमूनों के जांच के उपरांत ही खाद एवं उर्वरकों का उपयोग करना चाहिए। खेत अंतिम जुताई के समय 15-20 टन अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद मिट्टी में मिला देवें। इसके अतिरिक्त 40 किलो नत्रजन, 30 किलोग्राम फॉस्फोरस तथा 20 किलोग्राम पोटाश प्रति हैक्टेयर देना चाहिए।
नत्रजन की आधी मात्रा तथा फॉस्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय डाल देवें। शेष नत्रजन की आधी मात्रा को दो भागों में विभाजित कर बुआई के 30 एवं 60 दिनों के बाद टॉपड्रेसिंग के रूप में सिंचाई के साथ देनी चाहिए।

पौध संरक्षण उखटा रोग (विल्ट):
यह धनिये का प्रमुख रोग है, जो कि ‘फ्यूजेरियम आक्सीस्पोरम’ स्पी. कोरियन्डरी नामक कवक (फफूंद) से होता है। इस रोग का प्रकोप पौधे की किसी भी अवस्था में हो सकता है, लेकिन पौधों की छोटी अवस्था में ज्यादा होता है। यह रोग पौधों की जड़ में लगता है, जिससे रोगी पौधे मरझा जाते हैं।
पौधे की जड को चीरकर देखने पर ‘पिथ काले रंग की सवंमित दिखाई देती है। रोग के नियंत्रण हेतु गर्मियों में खेत की गहरी जुताई करें एवं फसल चक्र अपनावें।
बुवाई से पूर्व बीजों को 1.5 ग्राम थायराम एवं कार्बेण्डाजिम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज से अवश्य बीजोपचार कर बुवाई करें या ट्राइकोडर्मा (मित्र फफूंद) 6-10 ग्राम प्रति किलो की दर से बीजोपचार करें।
कार्बेण्डाजिम (बाविस्टीन) 2 ग्राम प्रति लीटर से भूमि का सिंचन करे !
झुलसा (ब्लाइट):
यह रोग ‘अल्टरनेरिया पूनेन्सिस’ नामक कवक से होता है। इस रोग से तने और पत्तियों पर गहरे भूरे रंग के धब्बे बन जाते हैं और पत्तियां झुलसी हुई दिखाई देती हैं।
नियंत्रण हेतु मेन्कोजेब का 0.2 प्रतिशत के घोल का छिड़काव करें। यदि आवश्यक हो तो डायथेन जेड78 का 0.2 प्रतिशत या काबेंडाजिम का 0.1 प्रतिशत का पर्णीय छिड़काव करें। फसल में अधिक सिंचाई ना करें।
चूर्ण आसिता या छाछ्या रोग (पाउडरी मिल्ड्यू):
यह रोग ‘इरीसाईफी पोलिगोंनी’ नामक कवक से होता है। रोग की प्रारंभिक अवस्था में पौधों की पत्तियों एवं टहनियों में सफेद चूर्ण नजर आता है।
अगर इस रोग की रोकथाम न की जाए तो सम्पूर्ण पौधा चूर्ण से ढंक जाता है। अधिक प्रकोप होने पर पत्तियां पीली पड़कर सूखने लग जाती हैं। रोग ग्रसित पौधों पर या तो बीज नहीं बनते या यदि बनते भी हैं तो बहुत छोटे आकार के बनते हैं, जिनकी गुणवत्ता भी बहुत कम हो जाती है। देर से बोई गई फसल एवं उच्च तापक्रम पर इस रोग का प्रकोप अधिक होता है।
रोग के नियंत्रण हेतु फसल पर घुलनशील गंधक 2 ग्राम प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें अथवा 20-25 किलो प्रति हैक्टेयर की दर से गंधक चूर्ण का भुरकाव करें अथवा केराथेन 1 मि.ली. प्रति लीटर पानी के घोल का छिड़काव करें। आवश्यकतानुसार छिड़काव या भुरकाव 15 दिन के अंतराल पर दोहराएं।
मोयला या माहू (एफीड्स):
धनिया की फसल का यह प्रमुख कीट है। इसके निम्भ व वयस्क पौधे के कोमल भागों (पत्ते, फूल, फल) से रस चूसते हैं तथा शहद काली मोल्ड को आमंत्रित करते हैं। फसल पीली पड़ने लग जाती है साथ ही दाने भी सिकुड़ जाते हैं और उपज पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।
फूल आते समय (फरवरीमार्च) में इसका प्रकोप अधिक होता है। देर से बोई गई फसल अधिक प्रभावित होती है ! इसलिए समय पर बुवाई करें।
फूल आने से पहले ऐसीफेट 75 एस.पी. 750 ग्राम प्रति हैक्टेयर या इमिडाक्लोप्रिड 200 एस.एल. 25 ग्राम सक्रिय तत्व या थायोमिथोक्जाम 25 प्रतिशत घुलनशील चूर्ण 100 ग्राम प्रति हैक्टर की दर से पानी में घोल बनाकर छिड़काव करें तथा यह छिड़काव 10-15 दिन बाद पुनः दोहराएं।
उर्वरकों की संतुलित मात्रा का प्रयोग करे साथ ही फसल में सिंचाई जब आवश्यक हो तभी करें आवश्यकता से अधिक मात्रा कीटों के प्रकोप में मदद करती है।
कटाई,गहाई एवं भंडारण:
बीज वाली फसल किस्म व स्थान के अनुसार लगभग 115 से 135 दिन में तैयार हो जाती है। इस समय पौधों की पत्तियां पीली पड़ जाती हैं व पौधे के मुख्य छत्रक पीले पड़ जाते हैं तब पौधों को उखाडकर या दंताली से काटकर कहीं साफ जगह पर इकट्ठा करके सुखा लिया जाता है।
सूखने के बाद औसाई करके दानों को बोरियों मे भर देवें। बोरियां भरते समय ध्यान रखें कि दानों में नमी 10 प्रतिशत से अधिक नहीं हो अन्यथा दाने सड जाएंगे।
उपजः
फसल की उपज उगाई जाने वाली किस्म, पौधों की संख्या, फसल प्रबंधन, इत्यादि पर निर्भर करती है। सामान्यतः सिंचित क्षेत्रो में 18-20 क्विटल एवं बारानी क्षेत्रों में 6 से 8 क्विंटल प्रति हैक्टेयर उपज प्राप्त हो जाती है।
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